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इच्छा रहित होने का दर्शन काल्पनिक आदर्श (यूटोपिया) है, जबकि भौतिकता माया है।

 इच्छा रहित होने का दर्शन काल्पनिक आदर्श (यूटोपिया) है, जबकि भौतिकता माया है। (UPSC 2021)

महाभारत के एक प्रसंग में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं, " इच्छा, आशा, अपेक्षा, आकांक्षा, यही सब मानव जीवन के संचालक होते हैं। इन्हीं इच्छाओं के आधार पर ही हमारे जीवन की दशा और दिशा निर्धारित होती हैं। कुछ प्राप्त करने से मिली सफलता, कुछ खोने से मिली विफलता के आधार पर ही हम किसी के जीवन के संदर्भ में कोई धारणा निर्धारित करते हैं।
          मानव जीवन स्वभावतः भी ऐसा है कि उसके सभी कार्य, जीवन का रहन सहन, उठना, बैठना चलना आदि का निर्धारण भी प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से इच्छाओं के आधार पर ही होता है।
          यदि मानव के पास कोई इच्छाएं ही न होती तो शायद इस भौतिकतावादी संसार का निर्माण ही संभव न था। परमात्मा ने हमें विभिन्न इंद्रियों के माध्यम से संवेदनशील बनाने को जो कार्य किया है, उसका क्रियान्वयन भी कहीं न कहीं इन्हीं इच्छाओं के द्वारा होता है। उदाहरण के लिए, जब हमें  भूख लगती है तो हमें भोजन की इच्छा होती है, जब हमारी ज्ञानिद्रियाँ सक्रिय होती हैं तो हमें काम की इच्छा होती है, और इसी इन्छा के फलस्वरूप ही इस समग्र विश्व का निर्माण हुआ है।
          उपर्युक्त विभिन्न विवेचन के आधार पर हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि इच्छारहित होना केवल एक कल्पना मात्र है, यह केवल और केवल कल्पना में आदर्श प्रतीत होता है लेकिन वास्तविक जीवन में इसकी प्राप्ति कभी भी संभव नहीं हो सकती है। यदि हम सूक्ष्मता से अवलोकन करें तो आसानी से यह जान पाएंगे कि इस सगात विश्व में केवल भाव ही नहीं अपितु समस्त प्राणियों के जीवन का संचालन केवल और केवल इच्छाओं के आधार पर ही होता है।
          यदि हम इतिहास में देखें तो हम पाते हैं कि ऐसे अनेक ऋषि मुनि एवं महा पुरुष भी हुए हैं, जिन्होंने अपनी इद्रियों अथवा इच्छाओं को नियंत्रित रखकर भी एक अच्छा एवं संतोषप्रद जीवन व्यतीत किया एवं संसार को आत्म संयम के साथ जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा दी। इस संदर्भ में हमारे धर्म ग्रंथों में अल्लेखित रामायन के महान धर्मात्मा राजा भरत की जीवन शैली उल्लेखीय है, जिन्होंने राजमहल में रहते हुए भी अपने ज्येष्ठ भाई श्रीराम के सम्मान में वैसा ही जीवन व्यतीत किया जैसा प्रभु श्रीराम वन में व्यतीत कर रहे थे। इसी प्रकार हमारे अन्य महान धर्मग्रंथ महाभारत के महामहिम भीष्म का जीवन की उल्लेखनीय है जिन्होंने अपने परिवार और अनुजों के हित अपनी समस्त सांसारिक इच्छाओं का दमन कर दिया तथा आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन किया।
          इतिहास के दो सबसे आधुनिक धर्मो के प्रवर्तकों महावीर और बुद्ध की जीवन शैली भी इस से संदर्भ में उल्लेखनीय है उन्होंने ने भी आत्मसंयम के साथ जीवन जीने की प्रेरणा अपने अनुयायियों की दी। किंतु यदि हम सूक्ष्मता से जैनधर्म की जीवनशैली का पालन करने की कोशिश करें तो शायद इस आधुनिक युग में हमारा एक सामान्य जीवन जीना भी संभव न हो पाएगा। क्योंकि जैनधर्म कहता है, "हमें अपने मल मूत्र को त्याग भी किसी ऐसे स्थान पर नहीं करना चाहिए, जहाँ किसी प्राणी (कीडे मकोडे) के मृत होने की आशंका हो।"
          इस प्रकार वर्तमान आधुनिक भौतिक जीवन में इस स्तर तक त्याग करना संभव नहीं है। क्योंकि इस हिसाब सें तो एक कृषक को कृषि करने की भी अनुमति नहीं होगी, और आधुनिक मानव यदि कृषि / उद्यम की इच्छा नहीं रखेगा तो उसका जीवन जीना भी संभव न होगा।
          अंततः विभिन्न विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है, इच्छारहित होना केवल एक कल्पना (यूटोपिया) मात्र है इसका हमारे यथार्थ जीवन से कोई लेना देना नहीं है। इच्छाएं होती है तभी हम उद्यय करते हैं, हम उद्यम करते हैं तभी इस संसार का पालन पोषण संभव हो पाता है।
          हालांकि अपनी इच्छाओं, अपेक्षाओं, महत्वाकांक्षाओं की अंधी दौड़ भी अच्छी नहीं हो सकती है हमारी इच्छाएं हमारे कल्याणकारी तभी तक हो सकती है, जब तक कि उनका उद्गार हमारी आवश्यक आवश्यकता पूर्ण करने के लिए हो लालसाओं के लिए नहीं, क्योंकि इच्छाएँ हमारी आवश्यकताओं को पूर्ण करते करते कब लालसाओं में बदल जाती है, पता भी नहीं चल पाता है, और फिर हम आरंभ कर देते हैं उन्हीं लालसाओं को पूर्ण करने की अंधी दौड़, जिसकी मंजिल हमें कभी भी हासिल नहीं हो पाती है।
          क्योंकि इच्छाओं का कोई ओर छोर नहीं होता है, इच्छाएं अनन्त होती है, एक अच्छा की पूर्ति होते ही हम दूसरी वस्तुकी प्राप्त करने की इच्छा करने लगते हैं और फिर यह प्रक्रिया सतत चलती रहती हैं, और फिर इसी में हमारे इस बहुमूल्य जीवन का अंत हो जाता है, हमारे हाँथो से कोई लोककल्याण का कार्य नहीं हो पाता है।
          इच्छाओं के वशीभूत होकर अपने जीवन का अंत करने के उदाहरण से भी हमारा इतिहास भरा पड़ा है, वह चाहे रामायण काल के महान पराक्रमी लेकापति रावण रहें हो या फिर महाभारत काल के दुर्योधन दोनो ने ही इच्छाओं के वशीभूत होकर अपने समस्त खानदान का गौरवमयी इतिहास मिट्टी में मिला दिया।
          आधुनिक इतिहास की घटनाओं पर हम गौर करें हो पाते हैं कि भारत में व्यापार करने के उद्देश्य से आई ईस्ट इंडिया कंपनी के पतन का भी एक बड़ा कारण उसकी महत्वाकांक्षाएं ही रही है। उन्होंने व्यापार के साथ-साथ ही हमारे देश की राजनीति में भी रुचि लेकर दोहरा लाभ कमाना चाहा, इसी कारण उनसे हम भारतीयों का अंततः मोहभंग हो गया, उन्होंने हमारा सामाजिक, आर्थिक राजनीतिक शोषण किया और फिर इस सबका दुष्परिणाम उन्हें ही भोगना पड़ा हमारा देश छोड़कर जाना पड़ा। कालांतर में महान ब्रिटिश साम्राज्य जिसका कभी सूर्य अस्त भी नहीं होता था उसे संपूर्ण विश्व से की बागडोर जो एकसमय उसको हाथ में थी, उससे हाथ धोना पड़ा। 
          यदि हम वर्तमान की परिस्थितियों पर गहनता से विचार करें तो हम पाते हैं कि आज समत विश्व इन्हीं इच्छाओं की पूर्ति की अंधी दौड़ में शामिल हैं, इसी का परिणाम है कि प्रकृति के संतुलन को  नजरअंदाज करते हुए विभिन्न देशी द्वारा विध्वंसक हथियारों जैसे:- परमाणु बम, भिसाइल, विभिन्न विकास परियोजनाओं आदि को मंजूरी प्रदान की जा रही है। इन सबका दुष्परिणाम विभिन्न रूपों (बाढ़, भूस्खलन, वैश्विक ऊष्मन, आतंकवाद) में हमारे सामने है। उत्तराखंड में ग्लेशियर टूटना, केरल की भीषण बाद, 2004 की भयानक सुनामी आदि विभिन्न आपदाएं हमारी इन्ही इच्छाओं का दुष्परिणाम रही है। 
          अंततः विभिन्न अध्ययन और अवलोकनी के आधार पर हम कह सकते हैं इच्छाएं अनंत है, इनकी कोई मंजिल नहीं यह हमारे लिए मृगतृष्णा के समान है, विभिन्न भौतिक सुख सुविधाओं से हमें आत्मसंतुष्टि कभी नहीं मिल सकती है, हमें एक अटल सत्य को समझना होगा और वह है मृत्यु। हमें समझना होगा यह संसार कुछ और नहीं बस एक माया है, इसलिए हमें अपनी इच्छाओं की बस उतना ही महत्व देना चाहिए जितने से हमारी आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति संभव हो सके। मृगतृष्णा की अंधी दौड़ में शामिल नहीं होना चाहिए, क्योंकि सब कुछ यहीं रहना है, सब एक दिन मिट्टी में ही मिल जाता है, तभी तो कबीर दास जी कहते हैं।
"हाड़ ब्यू जलै ज्यू लाकड़ी, केस जलै ज्यू घास।
सब तब जलता देखि करि, भया कबीर उदास।"
इसी प्रकार महान पार्श्व गायक मुकेश गाते हैं,"एक दिन बिक जाएगा, माटी के मोल, जग में रह जाएंगे बस प्यारे तेरे बोल" अर्थात् विभिन्न सुख सुविधाओं एसो आराम का कोई मतलब नहीं हैं। इसके तशीभूत होकर हम कोई लोककल्याण का कार्य नहीं कर सकते हैं, हम अपने जीवन से प्रेरित किसी को नहीं कर पाएंगें।
          इसलिए हमें सांसारिक इच्छाओ के वशिभूत होकर माया में नहीं घुसना चाहिए। हमें जैनधर्म जितना कठोर भी नहीं बनना है इच्छाओं के त्याग के क्रम में हम अपना ही अर्थहीन एवं अस्तित्वहीत अंत कर लें। हमें बौद्ध धर्म की तरह मध्यम मार्ग का अनुसरण करते हुए न तो इच्छाओं का दास बनना है और न ही उनका पूरी तरह त्याग करना है, बल्कि मध्य मार्ग पर चलने का प्रयत्न करना चाहिए ।
          हमें गांधी, अंबेडकर, अब्दुल कलाम के जीवन दर्शन से सीखने की आवश्यकता है कि किसी किस प्रकार इन महापुरुषों में सादगी पूर्ण जीवन व्यतीत करते हुए समग्र विश्व को शांत, अहिंसा, सादगी और लोकतंत्र का पाठ सिखाया।
"माया मुई न मन मूँआ, मरी-मरी गया शरीर।
आसा त्रिसना न मुई, यों कही गए कबीर।।"

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